भारत के इन जंगलों में छुपा है असली खजाना

पश्चिमी घाट, जो हिमालय से भी पुरानी 1,600 किलोमीटर लंबी पर्वत श्रृंखला है, भारत की जैव विविधता का खजाना है। यह यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल, देश के 30% पेड़-पौधों और वन्यजीवों का घर है, जो मानसून को प्रभावित करने और लाखों लोगों की जीवनरेखा बनाए रखने में अहम भूमिका निभाता है। लेकिन खनन, शहरीकरण और वनों की कटाई इसकी समृद्धि को नष्ट कर रही है। ऐसे में, डॉ. योगेश फोंडे जैसे पर्यावरणविद् वन अमृत जैसी पहलों के जरिए समुदायों और प्रकृति के बीच एक नया रिश्ता बना रहे हैं।

संकट में पश्चिमी घाट:

एक विरासत का संघर्ष पिछले एक दशक में खेती, खनन और निर्माण के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई ने पश्चिमी घाट के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को बुरी तरह प्रभावित किया है। साथ ही, वन विभाग की पाबंदियों ने स्थानीय समुदायों और जंगलों के बीच की रिश्ते को भी कमजोर कर दिया है। डॉ. फोंडे कहते हैं, जंगल से जुड़े लोगों को अगर इनसे लाभ नहीं मिलेगा, तो वे इन्हें क्यों बचाएंगे?” इनका समाधान है – स्थायी आजीविका के माध्यम से आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण को साथ लेकर चलना।

वन अमृत: जंगली फलों को बनाया समृद्धि का स्रोत

महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले में शुरू किए गए वन अमृत प्रोजेक्ट ने जंगली फलों को आजीविका का जरिया बनाया गया है। जामुन, जंगली आम, कटहल और तोरण जैसे फल यहां भरपूर मात्रा में होते हैं, लेकिन 90% बिना इस्तेमाल के सड़कर बर्बाद हो जाते थे। वन अमृत ने ग्रामीणों, खासकर महिलाओं को इन फलों से जैम, जूस, सीरप, रागी बिस्कुट और इडली जैसे उत्पाद बनाने का प्रशिक्षण दिया है जिनसे इनकी आजीविका में सुधार हुआ है।
वन अमृत उत्पाद

यह कैसे काम करता है?
.सामुदायिक प्रसंस्करण केंद्र: 28 गांवों में स्थापित इन केंद्रों में फलों को इकट्ठा करने, प्रोसेस करने और पैकिंग की सुविधा स्थापित की गयी है।
.महिला सशक्तिकरण: 7,000 से अधिक महिलाएं अब आर्थिक रूप से स्वावलंबी बन रही हैं और समाज में नई पहचान बना रही हैं।
.बाजार से जुड़ाव: उत्पादों को स्थानीय और बाहरी बाजारों में बेचकर एक टिकाऊ अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया जा रहा है।

मनोली गांव की शांता कहती हैं, हमें पता ही नहीं था कि ये फल हमारी आमदनी का भी बढ़ा सकते हैं। आज हम सिर्फ घर संभालने वाली नहीं, बल्कि हम इस बात की खुशी हैं कि हम उद्यमी है।

वन अमृत से आगे:

संपूर्ण संरक्षण के प्रयास
डॉ. फोंडे का विजन सिर्फ फलों तक सीमित नहीं है। उन्होंने कई अन्य पहलों को भी गति दी है:

1. टसर सिल्क पहल: जंगल में उगने वाले ऐन के पेड़ों पर टसर के कीड़ों से रेशम उत्पादन को बढ़ावा दिया जा रहा है।
2. मधुमक्खी पालन: टिकाऊ तरीके से शहद निकालकर परागण को बढ़ाया जा रहा है, जिससे जंगल का स्वास्थ्य सुधर रहा है।
3.देशी फसलों का पुनरुद्धार: स्थानीय चावल और कैशू एप्पल की प्रजातियों को बचाने के साथ ही उनकी पैदावार बढ़ाई जा रही है।

वन विभाग इन पहलों का समर्थन करता है। अधिकारी जी. गुरुप्रसाद कहते हैं, जब समुदायों को जंगल से आमदनी होगी, वे स्वयं इसके रक्षक बन जाएंगे।”

चुनौतियां: प्लास्टिक कचरा और शहरीकरण का दबाव

प्रगति के बावजूद, प्लास्टिक कचरा और शहरों की ओर पलायन बड़ी चुनौतियां हैं। पर्यटकों द्वारा छोड़ा गया प्लास्टिक वन्यजीवों के लिए खतरा बन रहा है। डॉ. फोंडे का आग्रह है, कि अपना कचरा वापस ले जाएं। अगर हम इन जंगलों को नहीं बचाएंगे, तो इनको कौन बचाएगा?

वहीं, शहरों की चकाचौंध युवाओं को आकर्षित करती है। लेकिन राजेश जैसे लोग उम्मीद जगाते हैं। मुंबई में संघर्ष के बाद वह कोल्हापुर लौटे और अब ये जंगली शहद व शरबत बेचकर जीवनयापन करते हैं। वह कहते हैं, यहां कम कमाई है, लेकिन जीवन शांत है। वन अमृत जैसे प्रोजेक्ट ऐसे ही अवसर बढ़ाकर पलायन रोकने की कोशिश कर रहे हैं।

सामुदायिक संरक्षण: क्यों है जरूरी?

2036 तक भारत की 60 करोड़ आबादी शहरों में रहने लगेगी। ऐसे में, ग्रामीण क्षेत्रों में टिकाऊ आजीविका का सृजन जरूरी है। डॉ. फोंडे का काम साबित करता है कि जब प्रकृति से लाभ मिलता है, तो लोग उसके संरक्षक बन जाते हैं।

आमजन के लिए सीखने की राह

पश्चिमी घाट का अस्तित्व वन अमृत जैसे नवाचारी मॉडल पर निर्भर है। डॉ. फोंडे ने न सिर्फ जैव विविधता को बचाया है, बल्कि प्रकृति और मनुष्य के बीच टूटे रिश्ते को जोड़ा है। शांता के शब्दों में, हम सिर्फ पेड़ नहीं बचा रहे, अपना भविष्य संवार रहे हैं।

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