जलवायु परिवर्तन से लड़ने में मददगार ‘निर्मित आर्द्रभूमि’ की कार्बन सोखने की क्षमता उम्र के साथ कम होती है—क्या है वजह

जलवायु परिवर्तन आज दुनिया की सबसे बड़ी चुनौती बन चुका है। बढ़ते कार्बन उत्सर्जन (Carbon Emissions) को नियंत्रित करने के लिए वैज्ञानिक नए-नए तरीकों पर शोध कर रहे हैं। इन्हीं में से एक है निर्मित आर्द्रभूमि (Constructed Wetlands) मानवनिर्मित ऐसे तालाब या दलदली क्षेत्र है जो न सिर्फ पर्यावरण को शुद्ध करते हैं, बल्कि वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को भी सोखकर जलवायु परिवर्तन की रफ्तार को धीमा करते हैं। लेकिन हाल ही में ओहायो स्टेट यूनिवर्सिटी (Ohio State University) के एक शोध में खुलासा हुआ है कि ये आर्द्रभूमि समय के साथ अपनी कार्बन सोखने की क्षमता खो देती हैं। आखिर क्यों होता है ऐसा? और भारत जैसे देशों के लिए इस शोध के क्या मायने हैं? आइए जानते हैं।

निर्मित आर्द्रभूमि क्या होती है?

निर्मित आर्द्रभूमि प्राकृतिक आर्द्रभूमि (Wetlands) की तरह ही होती हैं, लेकिन इन्हें इंसानों द्वारा खास डिज़ाइन के साथ बनाया जाता है। इनका उपयोग मुख्य रूप से अपशिष्ट जल को शुद्ध करने, बाढ़ नियंत्रण, और जैवविविधता को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है। भारत में केरल के कायल (Kuttanad Wetlands) या पंजाब के हरिके वेटलैंडजैसे प्राकृतिक आर्द्रभूमि स्थल मशहूर हैं, लेकिन अब सरकारें भी शहरी क्षेत्रों में भी निर्मित आर्द्रभूमि विकसित कर रही हैं, जैसे नमामि गंगे प्रोजेक्ट के तहत गंगा नदी के किनारे आदृभूमि विकसित कर रही है।

आर्द्रभूमि कैसे कार्बन को सोखती है?

प्राकृतिक या निर्मित आर्द्रभूमि में पानी और पौधे (जैसे साइप्रस, लिली, या घास) एक साथ मिलकर कार्य करते हैं। ये पौधे प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis) के ज़रिए वातावरण से CO₂ लेते हैं और इसे अपने ऊतकों (Tissues) में जमा कर लेते हैं। जब ये पौधे मरते हैं, तो इनका कार्बन युक्त जैव पदार्थ (Organic Matter) पानी की निचली सतह या मिट्टी में दब जाता है। इस तरह, कार्बन सैकड़ों सालों तक वातावरण में वापस नहीं आ पाता। इस प्रक्रिया को कार्बन सीक्वेस्ट्रेशन (Carbon Sequestration)कहते हैं।

शोध क्या कहता है?

ओहायो स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने दुनिया भर की 200+ निर्मित आर्द्रभूमि का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि 5-20 साल पुरानी आर्द्रभूमि सबसे ज़्यादा कार्बन सोखती हैं, लेकिन 20 साल से अधिक उम्रवाली आर्द्रभूमि की क्षमता धीरे-धीरे घटने लगती है। कुछ मामलों में तो यह क्षमता 50% तक कम हो जाती है!

मुख्य वजहें:

1. जैव पदार्थ का जमाव: समय के साथ मिट्टी में जैव पदार्थ की परत इतनी मोटी हो जाती है कि नए पदार्थ के लिए जगह नहीं बच पाती है।
2. पौधों की प्रजातियों में बदलाव: कुछ आक्रामक पौधे (Invasive Species) आर्द्रभूमि में फैलकर मूल प्रजातियों को हटा देते हैं, जिससे कार्बन सोखने की दर को प्रभावित करती है।
3. संतृप्ति (Saturation): मिट्टी की कार्बन स्टोर करने की क्षमता एक सीमा के बाद पूरी तरह भर जाती है, जैसे एक बाल्टी पानी से भर जाती है ।

जलवायु समाधान के लिए इसके क्या मायने हैं?

निर्मित आर्द्रभूमि को अक्सर जलवायु परिवर्तन के खिलाफ प्राकृतिक समाधान (Natural Solution)माना जाता है। लेकिन इस शोध के नतीजे बताते हैं कि इन्हें लंबे समय तक प्रभावी बनाए रखने के लिए रखरखाव (Maintenance) और नई रणनीतियों की ज़रूरत होती है:
युवा आर्द्रभूमि को प्राथमिकता: नए बनाए गए आर्द्रभूमि अधिक कुशल हैं, इसलिए शहरी योजनाओं में इन्हें शामिल करना फायदेमंद होगा।
पौधों की निगरानी: आक्रामक प्रजातियों को हटाकर मूल पौधों को बढ़ावा देना।
कार्बन स्टोरेज को रिसाइकिल करना: पुराने आर्द्रभूमि की मिट्टी को कृषि या ऊर्जा उत्पादन में उपयोग करना (जैसे बायोचार बनाना)।
अन्य समाधानों के साथ जोड़ना:सौर ऊर्जा, वनीकरण जैसे उपायों के साथ आर्द्रभूमि को भी शामिल करना है।।

भारत के संदर्भ में क्यों है महत्वपूर्ण?

भारत में आर्द्रभूमि का महत्व पारंपरिक रूप से रहा है। देश में 89+ रामसर साइट्स (Ramsar Sites) हैं, जैसे केरल के वेम्बनाद कोल, उत्तराखंड के भीमताल, और पंजाब के कांजली लेक । सरकार ने नमामि गंगे और नेशनल प्लान फॉर कंजर्वेशन ऑफ एक्वाटिक इकोसिस्टम जैसी योजनाओं के तहत निर्मित आर्द्रभूमि को बढ़ावा दिया है।

लेकिन इस शोध से सीख मिलती है कि:

नई आर्द्रभूमि बनाना ज़रूरी है: पुराने सिस्टम पर निर्भरता कम करके नए वेटलैंड्स विकसित करने चाहिए।
स्थानीय पौधों का उपयोग:आर्द्रभूमि में ऐसी प्रजातियां लगाई जाएं जो लंबे समय तक कार्बन सोख सकें।
नागरिक भागीदारी:समुदायों को आर्द्रभूमि के रखरखाव में शामिल करना, ताकि ये लंबे समय तक प्रभावी रहें।

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